वर्षो से संतमत में यही प्रयास रहा कि संसार में जितनी साधनायें है, एक रूप में हो जाय। इसलिए उन्होंने सबको सूक्ष्म रूप में समेटने का प्रयास किया ताकि सबमे एकरूपता आ जाये। हम जानते हैं जैसे मैं राम का भक्त हूँ, तो राम का एक रूप है, एक नाम। उसी प्रकार मेरे गुरु का एक नाम है और एक रुप। दो चीजें साथ साथ चलती हैं। संतों ने यह प्रयास किया कि ध्यान में जाने के लिए आवश्यक है कि साधना में कोई विकल्प नहीं रह जाय। जैसे जब मैं कृष्ण का ध्यान करता हूँ, कभी सुदर्शन चक्र से तो कभी बांसुरी से सुशोभित करता हूँ । संतो ने ध्यान की विधि में इन विकल्पो को समेटकर एक स्वरुप में ले जाने का प्रयास किया। ध्वनि एवं प्रकाश का कोई विकल्प नहीं है अतः साधना में केवल प्रकाश लेना है या केवल शब्द को सुनना है। इस तरह दो साधनाएं शुरू हुईं, एक शब्दमार्गी, दूसरी प्रकाशमार्गी। ध्येय वही था, जो मेरे इष्ट हैं, वहां तक पहुचना।
ध्यान में गहराई में जाना, उस चीज को समझना और पूर्णता में पहुँचना । हमारे गुरु महाराज नेे प्रकाश के स्वरुप की साधना का विचार किया। उनका विचार था इस विधि की साधना सरल और सहज पड़ती है। इसलिए प्रकाश की साधना का प्रचार किया। प्रकाश में पूरा अध्यात्म भरा है। ध्यान के शुरु-शुरु में कल्पना तो यही करते हैं प्रकाश है लेकिन इसके स्वरुप बदलते रहते हैं। इनके गुण बदलते रहते हैं, अवस्था बदलती रहती है। जैसे एक प्रकाश बिजली का , एक सूर्य एक चन्द्रमा का होता है। गुण अलग अलग हो गए। सब प्रकाश हीे तो है लेकिन सूर्य के प्रकाश में गर्मी, जीवन तत्व और ऊर्जा और बढ़ गयी। ऐसे ही गुरु महाराज ने हमें जो प्रकाश की साधना दी, उसमे आप जैसे-जैसे प्रकाश के ध्यान की गहराई में डूबते जायेंगे, उसका स्वरुप बदलता जायेगा। अब हम विचार करें प्रकाश का स्वरुप क्या होता है। प्रकाश असल में कुछ भी नहीं। प्रकाश का काम ये है कि, जो वस्तु सामने है उसे प्रकाशित कर देना।
जैसे यहाँ प्रकाश हो रहा है, इस प्रकाश में क्या है वो दिखाई पड़ रहा है। तो जब हम पहली साधना करते हैं, गुरु महाराज ने कहा कि परमात्मा का दिव्य प्रकाश, हमारे हृदय में भर रहा है, ये प्रारंभिक अवस्था है,जिसे हम अपनी साधना का base बनाते हैं। प्रकाश का ये काम हुआ कि उसने प्रकाश भर दिया मेरे मन में। जिस मन में मेरे बरसों से अँधेरा था उस मन में प्रकाश भर गया। जैसे आपने देखा होगा की कोई कमरा वर्षों से बंद पड़ा है । पर जब कमरे में प्रकाश किया तो देखा कि बहुत कूड़ा भरा है। जाले लगे हैं , बदबू आ रही है। ऐसे ही मैंने अपने मन को अब तक नहीं देखा था। कैसा है? कोई विचार भी नहीं किया। लेकिन जब गुरु का प्रकाश मेरे अंदर गया तो मेरा मन प्रकाशित हो गया। उसमे भरी हुई चीजें दिखाई दीं। आश्चर्य चकित हो गया। अरे! इसमें तो काम, क्रोध, लोभ और मोह भरा पड़ा है। ये सब चीजें दिखाई दीं की सब मेरे अंदर भरा है। तब मेरे मन में ये विचार पैदा हुआ की भाई ये है क्या? क्या ये अच्छी चीज है? नहीं ये अच्छी चीज नहीं है। तुम्हारा ये स्वरुप नहीं है। ये जो तुम देख रहे हो ये विकार हैं जो तुम्हारे अंदर भर गए हैं। अँधेरे में जैसे चोर घुस आते हैं वैसे ही ये चोर घुस गए हैं । तो इस प्रकार मुझे विकारों का स्वरुप दिखाई दिया ।
दोष दीखा और वैराग्य जागा इन विकारों से। वैराग्य का अर्थ ये नहीं है कि हमने घर बार छोड़ दिया। वैराग्य का अर्थ ये है कि हमें विषयों से दूर करे । तब गुरु के प्रकाश में इन विषयों को देखा। उससे मुझे घृणा हुई। जैसे जैसे गुरु की शक्ति प्रकाष के माध्यम से भरती गई ये काम क्रोध मोह लोभ सब निकलते चले गए और मेरा मन निर्मल हो गया। बुद्धि का काम है ज्ञान लेना। मैंने कोई चीज देखी, मेरे दिमाग में भर गयी, ऐसे ही जब परमात्मा का प्रकाश मेरी बुद्धि में गया तो वहां ज्ञान का प्रकाश हो गया। बुद्धि का अर्थ वो नहीं जो हम सोचते हैं और बोलते हैं। यहाँ बुद्धि पश्यन्ति हो गयी। और इसका काम वो नहीं रहा कि सुनना इकठ्ठा करना और रखना। उसका स्वरुप बदल गया और द्रष्टा हो गयी । अब वो देखती है ज्ञान कोई पुस्तकों में छिपने वाली चीज नहीं है, ये तो सर्वत्र व्याप्त है। जैसे यहाँ वायु व्याप्त है उससे कहीं ज्यादा यहाँ ज्ञान व्याप्त है। तो मेरी बुद्धि जब निर्मल हो गयी, मेरे अंदर बोध जाग्रत हो गया। बोध वो होता है जो आत्मशक्ति प्राप्त कराता है। बोध अनुभव से होता है। गुण बाहर से नहीं आते, आप में गुण हैं। लेकिन ये चीजें भर गयी थीं इससे आप ढक गए थे। गुण आपके अंदर पहले से मौजूद थे, जब ये विकार बाहर निकलेंगे, षट्सम्पत्ति अर्थात ईष्वरीय गुण शम, दम तितिक्षा उपरति श्रद्धा और समाधान हमारे अन्दर प्रकट हो जायेंगे। इन्द्रियों का दमन करना, मन का शमन करना, दुख सहने की क्षमता आना, विषयों से विरक्ति होना, श्रद्धा प्रकट होना और सब क्लेशों का समाधान मिल जाना। यह गुण आ गये। मेरा स्वरुप बदल गया उस प्रकाश में।
अब मैं देख रहा हूँ शम क्या है दम क्या है तितिक्षा क्या है ये सारे गुण मेरे अंदर प्रकट हो गए। ईश्वर अंश जीव अविनाशी, ईश्वर का अंश हूँ मैं। जो गुण ईश्वर में हैं, वो गुण मुझमे भी हैं। लेकिन प्रकृति के आवरण के कारण इन विकारो ने ढक रखा था। गुरु के प्रकाश से मेरे विकार निकलते गए और मेरे गुण प्रकट होते चले गए। गुरु महाराज द्वारा प्रदत्त साधना से विकार रहित होकर मैंने अनुभव किया कि मैं जीव मात्र नहीं, मैं भी वही परमात्मा हूँ। आया था प्रकृति के संयोग से उत्पन्न हुआ आनंद को उपभोग करने। लेकिन यहाँ आकर प्रकृति में फंस गया और परमात्मा को भूल गया। पर गुरु प्रदत्त साधना से सारे मल निकल गए प्रकृति से निर्पेक्ष हो गया। अब केवल आनंद है। प्रकृति में सुख है, आत्मा में आनंद है। सुख का विलोम दुःख होता है। सुख हुआ लेकिन फिर दुःख भी आ जाता है। ये जाता नहीं, दोनों का चक्र है। आत्म स्वरूप में अपार आनंद है अर्थात वास्तव में मेरा जो स्वरुप था, सच्चिदानंद था। संसार में आने के बाद मैं मेरा तू तेरा ये स्वरुप हो गया था। लेकिन ये सारे विकार गुरु ने धो दिया। हमें निर्मलता प्रदान कर दी। महर्षि पतंजलि इसे कहते हैं, योगश्चित्तवृतिनिरोधः, चित्त में निरोध हो गया शांति मिल गयी। प्रकृति से निरपेक्ष हो गया। गुरु महाराज जी की साधना हमें वहां पहुंचाती है जहाँ हम ये जान लें की प्रकृति क्या होती है? स्वर्ग क्या होता है? मरणोपरांत हमें पता नहीं स्वर्ग देखने को मिले या नहीं मिले, हमारी मुक्ति हो न हो पर इस साधना के द्वारा हम यह सब जान लेंगे। उन्होने बड़ा सरलतम् मार्ग बतलाया कि आपको कोई जप या तप नहीं करना है बस बैठ जाना कि परमात्मा या मेरे गुरु मेरे सामने बैठे हैं। बाकी सब उनपर छोड़ दीजिये। जैसे नाला जब नदी से जुड़ गया, तो आगे नदी का काम है उसे साफ करना। बस उसी प्रकार सबेरे और शाम आधा घंटा समय से आप गुरु या परमात्मा के ध्यान में बैठ जाइए, आप जीवन का श्रेयस प्राप्त कर जायेंगे.
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